जो उठी थी उर से
अथाह सागर के ,
का स्वाद चखा था मैंने
तनिक नमकीन थी|
उड़ चली थी
कुछ सहमी हुई सी ,
कुछ बहकी हुई सी ,
सूरज के प्यासे अधरों से
अपनी नमी छिपाती हुई ,
मलिन हुई फिजाओं से
अपनी निवेदिता बचाती हुई ,
तलाश रही थी
अपना खोया अस्तित्व |
देखो गगन को छूकर
उसके गलियारों में रंग भरकर
फिर वापस आई है......
तृषित कंठों को तर करने ,
बंजर धरा की गोद भरने ,
हथेलियों पर मृदंग करती ,
संग पर नए छंद लिखती |
फिर चखा स्वाद मैंने …….
और आश्चर्य हुआ इस नयी अनुभूति पर
की बूँद अब मीठी हो चुकी थी |
बदलता तो है मनुज भी
शिखर को छूकर
फिर बदलाव मनुज में ही क्यूँ
विपरीत होता है …………………
~सौम्या
~सौम्या