आवारा…..आज़ाद…शिखर के नज़दीक……
आकाश के आँगन में उमड़ते-घुमड़ते
रंगों की नयी-नयी छठा बिखेरते ……….
धूप की तपिश में हर रोज़ निखरते
एकदम बच्चों जैसे….मासूम .....
चाँद -तारों संग लुका -छिपी खेलते
हवाओं संग होड़ लगाते
कभी परिंदों की टोलियों को कहानियाँ सुनाते
और कभी ना जाने कहाँ गुम हो जाते …………
पागल ….बिल्कुल पागल हो तुम !
उड़नखटोले पर अपने जब सैर पर निकलते हो
सज-सँवर के………नारंगी, कभी नीली , कभी बैंगनी पोशाकों में
कितना इतराते फिरते हो …..उफ़……..ये अदाएं तुम्हारी !
जब कभी नाराज़ होते हो ना …..तो तुम्हारे गुस्से की धमक
धडकनें बढ़ा देती है….सच्ची !
पर वादियों की गोद में सिर रखकर ….फुर्सत में कभी
जब खुशियों के छोटे -छोटे मोती छलकाते हो
तो पूरी कायनात मानो जश्न में सराबोर हो जाती है
धरती सँवर जाती है ….नयी नवेली दुल्हन की तरह !
संगीत मीठे …रंग और गहरे हो जाते हैं
दिल के बंद किवाड़ आप ही खुल जाते हैं ……..
ना जाने क्या बात है तुममे ………..
परियों के सपनों से लगते हो
फिर भी अपने से लगते हो ……..
और बावली नदी सी मैं
कभी फूलों जैसी शांत ….
कभी तितलियों जैसी चँचल….
जड़ों से जुड़ी ......
सीमाओं में बंधी …
अपनी राहें खुद बनाती
झूमती …गाती ….बलखाती ….
बस बहती जाती …बहती जाती …!
रेशमी किरणों संग अठखेलियाँ करती
झुरमुठों में गुलशन संग घंटों बतियाती
कभी रेत के दानों पर कविता लिख आती
एकदम बच्चों जैसी….मासूम .....
कभी बेवजह ही जोर से खिलखिला कर हंस देती
कभी तारों- जड़ी ओढ़नी पहन इतरा कर चल देती
और कभी तुम्हारे बारे में सोचते- सोचते
थोड़ा शर्माकर ...थोड़ा इठलाकर …खुद में सिमट जाती ….
कभी झील की सिलवटों सी सुलझी हुई सी
कभी अपनी ही लहरों में उलझी हुई सी
कभी बिछड़े किनारों को जोड़ती तो कभी
अपनी ही गहराईयों में खोयी हुई सी ….
पता है? अक्सर छिप-छिपाकर
वो चाँद का टुकड़ा...... मुझमे उतर आता है ……
फिर सारी रात हम तुम्हारी ही बातें करते हैं …..
कितने अलग से हैं ना ….मैं और तुम …
फिर भी कितने एक जैसे ….तुम और मैं
अनजाने हैं एक दूजे से
मिलेंगे अचानक..... कहीं किसी अनजाने से मोड़ पर
शायद फूलों की उन्ही वादियों के बीच
जहाँ मिलता है एक सिरफिरा बदल ….एक बावली नदी से ……
ज़िन्दगी मसरूफ़ है अभी उस राह को संवारने में
ये इंतज़ार तब तक अच्छा लगता है ….
है ना ?
~Saumya
आकाश के आँगन में उमड़ते-घुमड़ते
रंगों की नयी-नयी छठा बिखेरते ……….
धूप की तपिश में हर रोज़ निखरते
एकदम बच्चों जैसे….मासूम .....
चाँद -तारों संग लुका -छिपी खेलते
हवाओं संग होड़ लगाते
कभी परिंदों की टोलियों को कहानियाँ सुनाते
और कभी ना जाने कहाँ गुम हो जाते …………
पागल ….बिल्कुल पागल हो तुम !
उड़नखटोले पर अपने जब सैर पर निकलते हो
सज-सँवर के………नारंगी, कभी नीली , कभी बैंगनी पोशाकों में
कितना इतराते फिरते हो …..उफ़……..ये अदाएं तुम्हारी !
जब कभी नाराज़ होते हो ना …..तो तुम्हारे गुस्से की धमक
धडकनें बढ़ा देती है….सच्ची !
पर वादियों की गोद में सिर रखकर ….फुर्सत में कभी
जब खुशियों के छोटे -छोटे मोती छलकाते हो
तो पूरी कायनात मानो जश्न में सराबोर हो जाती है
धरती सँवर जाती है ….नयी नवेली दुल्हन की तरह !
संगीत मीठे …रंग और गहरे हो जाते हैं
दिल के बंद किवाड़ आप ही खुल जाते हैं ……..
ना जाने क्या बात है तुममे ………..
परियों के सपनों से लगते हो
फिर भी अपने से लगते हो ……..
और बावली नदी सी मैं
कभी फूलों जैसी शांत ….
कभी तितलियों जैसी चँचल….
जड़ों से जुड़ी ......
सीमाओं में बंधी …
अपनी राहें खुद बनाती
झूमती …गाती ….बलखाती ….
बस बहती जाती …बहती जाती …!
रेशमी किरणों संग अठखेलियाँ करती
झुरमुठों में गुलशन संग घंटों बतियाती
कभी रेत के दानों पर कविता लिख आती
एकदम बच्चों जैसी….मासूम .....
कभी बेवजह ही जोर से खिलखिला कर हंस देती
कभी तारों- जड़ी ओढ़नी पहन इतरा कर चल देती
और कभी तुम्हारे बारे में सोचते- सोचते
थोड़ा शर्माकर ...थोड़ा इठलाकर …खुद में सिमट जाती ….
कभी झील की सिलवटों सी सुलझी हुई सी
कभी अपनी ही लहरों में उलझी हुई सी
कभी बिछड़े किनारों को जोड़ती तो कभी
अपनी ही गहराईयों में खोयी हुई सी ….
पता है? अक्सर छिप-छिपाकर
वो चाँद का टुकड़ा...... मुझमे उतर आता है ……
फिर सारी रात हम तुम्हारी ही बातें करते हैं …..
कितने अलग से हैं ना ….मैं और तुम …
फिर भी कितने एक जैसे ….तुम और मैं
अनजाने हैं एक दूजे से
मिलेंगे अचानक..... कहीं किसी अनजाने से मोड़ पर
शायद फूलों की उन्ही वादियों के बीच
जहाँ मिलता है एक सिरफिरा बदल ….एक बावली नदी से ……
ज़िन्दगी मसरूफ़ है अभी उस राह को संवारने में
ये इंतज़ार तब तक अच्छा लगता है ….
है ना ?
~Saumya